शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

मजदूर पिता की बेटी

पिता
तुम मजबूर,
एक मजदूर
दिन रात के मेह्नतारे
फिर भी जीवन से न हारे
हाड-मांस का पुतला सहता
हाड़ तोड़ती शीत
तुम घर आते
गाते गीत
मेरी परी बियाही जाए
किसी देस के राजकुमार से
मिले उसे सच्चे हो-हो कर
सपने मेरे सुकुमार से
पिता, कहो एक बात
क्या दे पायेगा साथ
महलों का राजकुमार
किसी पनिहारिन का?
रंग से उजला कैसे सहेगा
 हाथ कठोर और मैला
अपने गोरे उजले हाथों में?
फलों के बागानों का मालिक
जिसके होंगे नाज़ हज़ार
क्या उसके थाल में होंगे
गुड़, रोटी, उबला भात?
कहो, सो पायेगा धरती पर?
ओढ़ चादर सा आकाश
पिता मुझे न होना है
किसी बंद महल की चमकी गुड़िया
कि आँगन तुम्हारे
मैं रही निर्बन्ध सदा
तो सही मुझे वर ऐसा
जो तुम सम रमता हो
मुझे दे सके अम्बर की छाया
बारिशों में खुद हो मुझ पर साया
ऐसा साथी पाना है
मजदूर पिता,
तेरी बेटी को
लकडहारे का
हाथ बंटाना है
जो जाए तो गाये
जीवन से भरे जीवंत गीत
और दिन भर के श्रम सीकर ले
ह्रदय महकाता आये
सांझ में गाये
प्रेम के निश्छल
गीत अबोध
सच्ची रोटी खाए और
जीवन पर मुस्काये
आखिर
महल में खोने से कहीं बेहतर है
4 दिन के जीवन को
7 कोस में संग-संग जीना!
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अपराजिता ग़ज़ल

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