शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

बसेरा

 लिख देना चाहती हूँ
एक कविता
तुम्हारे प्रेम पर
कि बहते आये तुम अनायास ही
या कि आना तुम्हारा निश्चित ही था
मेरी दिशा की धारा में
मैं झाड़ी कंटीली
और उलझना तुम्हारा
हुआ प्रवास सफ़र में
दिन-रैन के साथी हो
एक होने की प्रक्रिया में
हम तीन फर्लांग चले
चलो चौथे मैदान को त्याग
क्षितिज के उस ओर
बनाते हैं
बसेरा अंतिम रात का..........
--------------------------------------------
अपराजिता ग़ज़ल 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें