रविवार, 26 फ़रवरी 2017

शीशे

जब कभी आती हैं बारिशें 
भीग जाते बारिशों में शीशे
भीगे शीशों से झांकने लगती हैं यादें
कभी ताकती हैं किसी काँच की खिड़की से
कभी धुंधले आईने में नज़र सी आती हैं
कभी कभी काँच के साथ टूट के बिखर जाती हैं
और कभी टूटे काँच में नज़र आती हैं टुकड़ा टुकड़ा
फिर बन जाती हैं एक याद की हज़ार यादें
और हर याद 
काँच के अलग अलग टुकड़े में
रक्सकुनां हो जाती हैं
रंग देती हैं अपने लहू से ज़हन की ज़मीं को
और पीछे छोड़ जाती है एक बारिश
फिर..........जब कभी................
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अपराजिता ग़ज़ल

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